Sunday, August 29, 2010

दौलत की दीवानी दिल्ली , कृषक मेध की रानी दिल्ली

दौलत की दीवानी दिल्ली , कृषक मेध की रानी दिल्ली

राष्ट्रकवि दिनकर ये पंक्तियाँ जो कहती है उस सच से हम इनदिनों फिर से रोजाना रूबरू हो रहे हैं,  हम यहाँ किसानो के साथ ही वनवासियों को जोर कर देख सकते हैं . न केवल दिल्ली में आये अलीगढ के किसान बल्कि उरीसा के उन लोगो की बात भी एक हो जाती है जो जारी कानूनों में बदलाव की मांग करते हैं . क्या कथित विकास की कीमत केवल वे  चुकाए और मौज करे दिल्ली . जो नेता इन लोगो की मांगो को हवा देते हैं उनकी सच्चाई तौलने का सवाल भी बरा है. जब सरकार इनको बताती है की उरीसा में ५४ हजार करोर का पास्को प्रोजेक्ट लगेगा या वेदांता का  केयर्न से ९.६ अरब डालर का सौदा पक्का हुआ है या कई प्रोजेक्ट रद्द किये गए हैं तो क्या देश के सबसे पिछरे इलाके कालाहांडी, बोलांगीर  के लोग उस कीमत को पैसो  में बदल कर सोच सकेंगे क्या जिन पैसो पर उनका दिन कटता है गुजरता है बीतता है ? क्या अलीगढ , मथुरा , गौतम बुद्ध नगर , आगरा के ये सीमांत ,मझोले किसान और उनके बच्चे यमुना एक्सप्रेस वे पर चलने वाली कारों और बरी लारियों को देखकर दिन बिता सकने की कला सीख  पाएंगे . उन्हें मिलने वाले मुवाबजे क्या उनके किसान होने के बदले दैनिक मजदूर बनने या सूदखोरी की दलदल की और नहीं धकेल देंगे.
मुद्दे से जुरे जागरूक लोग तो इन कथित विकास की योजनाओ के परिणामो की चर्चा  करते हुए इसे सिर्फ और सिर्फ दिल्ली के लाभ की बात बताते . इनके पास अपने मजबूत और जज्बाती तर्क भी हैं. जो लोग इस विकास को जरुरी बताते हैं या दिल्ली के साथ हैं उनके लिए मैथली भाषा की एक कहावत है ... "चले के चेत्ता नय, रहरी के मुरत्ठा." ये हमें बताता है कि दिल्ली अपने शो बाजी के लिए कैसे बाकी लोगो को जो मुखर नहीं हैं  शिकार बना रही है.जब हमारे देश का अवाम भूखा है तो हम कैसे दुनियावी शान की सोच सकते हैं ? क्यों हमारी प्राथमिकताओ को उल्टा पुल्टा किया जा रहा है . भूखे दुखी जनता वाले देश की कैसी इज्ज़त ?
१८९४ में बने भूमि अधिग्रहण कानून के बदलने की बात संसद में हो रही है पर क्या यह नाकाफी नहीं. जमीन छिनने वक़्त सरकारी कारिंदे क्या अंग्रेजो की तरह ही पेश नहीं आते .....इसका जवाब हमें वो बुजुर्ग दे सकते हैं जिन्होंने गुलामी के वो मंज़र देखे हैं . प्राध्यापको या शोध छात्रो जिन्होंने ब्रितानिया कल का अध्धयन किया है वो बताते हैं की दिल्ली का चरित्र नहीं बदला है. बस इसका लिबास बदला है." मन न रंगाया रंगाया जोगी कपरा"
दौलत की दीवानगी में दिल्ली की अमेरिकापरस्ती हो , कई जरुरी और बुनियादी मुद्दों पर संसद की चुप्पी हो पर संसद सदस्यों के वेतन पर एक रहती है.तय अनुदान जब किसानो के बदले उर्वरक उत्पादकों या अयाताको को मिलता है तो कोई नहीं बोलता पर किसानो की ख़ुदकुशी को सब भुनाना चाहते हैं.
इन मुद्दों पर दिल्ली की मिडिया का चेहरा भी धुला नहीं दिखता , विदेश से धन लाभ पा रही इस मीडिया हाउसों को कालाहांडी में राहुल बाबा दीखते हैं पर उसी तरह नाक  के नीचे किसानो की रैली नहीं दिखती या फिर उसकी खामिया ही दिखती हैं. याद  करे बीते शुक्रवार का अख़बार या गुरुवार के चैनलों को.  कुछ जानकार बताते हैं कि बिना किसान हुए भी किसानो के बारे में अधिकार पूर्वक कहा जा सकता है. मुझे लगता है कि बाकी बातो के बारे में तो कह सकते हैं पर उनके दर्द के बारे में बयाँ करना संभव नहीं. दुसरो का अनुभव किया हम देखकर नहीं समझ सकते हाँ जान जरुर सकते हैं.  "जाके पाँव न फटी बिबाई वो क्या जाने पीर पराई " कई बार लगता है कि दौलत कि दीवानगी में दिल्ली कहा तक जा सकती है ...? क्या दिल्ली किसानो, भोले वनवासियों , की लाशो को केवल गिन सकती है महसूस नहीं कर सकती . क्या दिल्ली नक्कारखाने कि तरह हो गयी है और जो कुछ सदाए आ रही वो  तूति  कि आवाज़ . क्या भारतीय संसद को किसी भगत , राजगुरु  , सुखदेव का इंतजार है.........?
शायद हम सबको भी...............

5 comments:

  1. dilli kisi ki nahi bus awsarwadiyo , paisewalo ki hai. yeh apke vichar ache lage . bich bich me kavitao ke prati apka prem bhi jhlkta najar aaya .. acha lga lekin kuch chizo ko saral tarike se nahi rkha aapne koshish kariyega agli post me aap hume saral shabdo se avgat karaye..

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  2. is attahas ki guj pmo office jayegi...........jai ho

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  3. your analysis is very comprehensive. may your point of view would bring such change in the way of life specially mass of delhi. a beautiful phrase for you- nature has given enough for everyones need but not for greed.

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  4. सड़कों और हाईवे के दौर ने किसानों का सुख चैन छीन लिया है. केशव भैया, आपकी बातों से सहमत हूँ. कल 9 बजे 'विस्थापन और विकास' पर ही चर्चा होगी..आप ज़रूर रहें...

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